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Indira Ghandi“इंदिरा गांधी और 1984 का चुनाव: इतिहास का सबसे बड़ा राजनीतिक दांव”

By mangat ram

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इंदिरा गांधी
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“क्या 1984 का चुनाव इंदिरा गांधी का राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक था, या एक मजबूरी? जानिए पर्दे के पीछे की रणनीति।”

प्रोदिप्तो घोष को 18 जनवरी, 1977 की शाम की याद ताज़ा है। वह रेडियो सुन रहे थे, तभी उन्होंने इंदिरा गांधी को यह घोषणा करते हुए सुना कि उस साल मार्च में नए आम चुनाव होंगे।

दक्षिण दिल्ली में तत्कालीन 28 वर्षीय अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) घोष आपातकाल के दौरान उथल-पुथल भरे दौर से गुज़रे थे, उन्हें कई लोगों को हिरासत में लेना पड़ा था, जिससे वे असहज थे। उस शाम का प्रसारण उनके लिए एक बड़ी राहत की तरह था – साथ ही एक आश्चर्य की बात भी, क्योंकि स्थानीय प्रशासन के स्तर पर किसी को भी श्रीमती गांधी के इस कदम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।

1984 का वर्ष भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में न सिर्फ एक राजनीतिक मोड़, बल्कि एक नायक के अंतिम अध्याय के रूप में दर्ज है। देश भर में उठ रही धार्मिक और सामाजिक उथल-पुथल के बीच, इंदिरा गांधी ने एक ऐसा निर्णय लिया जो उनके लिए जीवन और मृत्यु के बीच का पुल साबित हुआ — आम चुनाव कराने का निर्णय।

यह सिर्फ एक राजनीतिक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि एक ऐसा दांव था जो उन्होंने उस समय लगाया जब राष्ट्र आपातकाल की छाया, अलगाववाद, और सिख विरोधी आंदोलन की आग में झुलस रहा था। लेकिन सवाल यह है — क्या यह निर्णय इंदिरा गांधी का व्यक्तिगत था? या किसी गुप्त सलाह, दबाव या रणनीति के तहत लिया गया?

इस ब्लॉग में हम इतिहास के उन पन्नों को पलटेंगे जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया गया — जानेंगे कि 1984 में उनके चारों ओर कौन लोग थे, किसने उन्हें चुनाव में उतरने को प्रेरित किया, और कैसे ये निर्णय उनके जीवन की सबसे बड़ी और अंतिम राजनीतिक चाल बन गया।

किसने दी इंदिरा गांधी को चुनाव की सलाह? पर्दे के पीछे की असली कहानी

इंदिरा गांधी अपने समय की सबसे तेज़-तर्रार और दूरदर्शी नेताओं में से एक थीं। लेकिन 1984 की शुरुआत में जब भारत सिख आतंकवाद, ऑपरेशन ब्लू स्टार और कांग्रेस के प्रति गिरते भरोसे से जूझ रहा था — उस समय आम चुनाव की घोषणा करना एक बहुत बड़ा दांव था।

इतिहासकारों और दस्तावेज़ों के अनुसार, यह निर्णय उन्होंने अकेले नहीं लिया था। आइए जानें किन लोगों और हालातों ने उन्हें इस ओर प्रेरित किया:

1. राजीव गांधी और युवा कांग्रेस लॉबी

इंदिरा गांधी के बड़े बेटे राजीव गांधी, जो उस समय राजनीति में नया-नया दाखिल हुए थे, उन्हें यह सलाह दे रहे थे कि यदि कांग्रेस सत्ता में दोबारा आए तो वे नई पीढ़ी को नेतृत्व में लाएं
राजीव गांधी ने इंदिरा को “विरासत मजबूत करने और पार्टी को नया चेहरा देने” की दिशा में सोचना शुरू किया था।

 माना जाता है कि यही वह बात थी जिसने इंदिरा को चुनाव कराने की ओर बढ़ाया — ताकि अगली सरकार में राजीव गांधी को स्थापित किया जा सके।


 2. नारायण दत्त तिवारी और पी.वी. नरसिम्हा राव जैसे वरिष्ठ रणनीतिकार

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने इंदिरा गांधी को बताया कि अगर जल्द चुनाव नहीं कराए गए, तो राजनीतिक अस्थिरता और अलगाववाद बढ़ सकता है।
तिवारी और राव जैसे नेता चाहते थे कि पार्टी ब्लू स्टार की छवि से उबर कर, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में मजबूती से लौटे

 इस सलाह ने इंदिरा को प्रेरित किया कि आगामी चुनाव एक मौका है जनता का भरोसा दोबारा जीतने का

3. गोपनीय खुफिया रिपोर्टें और सुरक्षा एजेंसियाँ

रॉ (R&AW) और आईबी (IB) की कई रिपोर्टें इंदिरा को मिल रही थीं जिनमें कहा गया था कि पंजाब और सीमावर्ती क्षेत्रों में अलगाववादी गतिविधियाँ तेजी से बढ़ रही हैं।
इन रिपोर्टों ने संकेत दिया कि अगर राजनीतिक स्थिरता नहीं लाई गई, तो हालात और बिगड़ सकते हैं।

 इसलिए उन्होंने सोचा कि चुनाव के ज़रिये एक स्पष्ट जनादेश ले आना ज़रूरी है।


 4. इंदिरा गांधी का निजी विश्वास और आत्म-निर्णय

हालांकि इंदिरा ने सलाह ली, लेकिन अंतिम निर्णय उनका था।
उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था:

“मैं जानती हूं कि मुझे मार दिया जाएगा, लेकिन मैं देश को अस्थिर नहीं होने दूंगी।”

यह वाक्य इशारा करता है कि उन्होंने चुनाव को सिर्फ सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि भारत की अखंडता की रक्षा के रूप में देखा।

चुनाव के बाद क्या हुआ: हत्या, विरासत और एक युग का अंत

1984 का चुनाव इंदिरा गांधी के लिए सिर्फ सत्ता वापसी का माध्यम नहीं था — यह उनके जीवन का आखिरी राजनीतिक कदम बन गया।
उन्होंने जैसे ही चुनाव प्रचार की शुरुआत की, माहौल गर्म होता गया। हर जनसभा में वे खुले तौर पर कह रही थीं:

“अगर मेरी जान भी चली जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन देश एक रहना चाहिए।”

उनके शब्द नब्ज़ की तरह चलते देश के हालात को दर्शा रहे थे — और शायद उन्हें इस बात का आभास भी हो चुका था कि आने वाला समय बेहद कठिन है।

31 अक्टूबर 1984 – एक दर्दनाक सुबह

इंदिरा गांधी अपने आवास 1, सफदरजंग रोड से सुबह-सुबह काम पर निकल रही थीं।
रास्ते में ही उनके निजी सुरक्षा कर्मी, जो सिख समुदाय से थे — बेअंत सिंह और सतवंत सिंह — ने उन्हें गोली मार दी।

  • उन्हें 30 से ज़्यादा गोलियां मारी गईं।

  • अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वे बच नहीं सकीं।

यह भारत की राजनीतिक आत्मा पर लगा एक गहरा घाव था।

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